अग्नि मिसाइल, परमाणु बम… भारत ने दुनिया को मनवाया लोहा फिर फाइटर जेट का इंजन बनाने में चीन से 15 साल

AdminUncategorized2 days ago11 Views

नई दिल्ली/बीजिंग: ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत ने जब अपनी सटीक हमला करने की ताकत दिखाई तो पूरी दुनिया दंग रह गई। आलम यह है कि रूसी वायुसेना अब इंडियन एयरफोर्स के सटीक हमले की स्टडी कर रही है। भारत ने पिछले कुछ दशकों में एटम बम, ब्रह्मोस मिसाइल से लेकर स्मार्ट गाइडेड बम, सैटलाइट किलर हथियारों से लेकर अग्नि मिसाइल से लेकर परमाणु मिसाइल सिस्टम तक बनाकर टेक्नोलॉजी की दुनिया में कमाल कर दिया है। लेकिन जब बात लड़ाकू विमानों के इंजन की आती है तो भारत अभी भी चीन से 10 से 15 साल पीछे है। भारत को अभी भी लड़ाकू विमानों के इंजन के लिए फ्रांस, अमेरिका या फिर रूस पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दूसरी तरफ चीन है, जो कभी रूसी इंजन से अपने विमानों को उड़ा रहा था वह अब WS-10 और WS-15 जैसे अपने इंजन से J-20 जैसे स्टील्थ फाइटर उड़ा रहा है। लिहाजा सवाल उठ रहे हैं कि चीन ने जो कर दिखाया वह आखिर भारत क्यों नहीं कर पाया। खासकर तब, जब भारत एक वक्त टेक्नोलॉजी की दुनिया में चीन से काफी आगे था। असल में भारत जब मिसाइल बना रहा था उस वक्त चीन टरबाइन घुमा रहा था। आइए समझते हैं पूरा मामला…

भारत ने साल 1986 में कावेरी इंजन बनाने के लिए प्रोजेक्ट लॉन्च किया था, जिसका मकसद हल्के लड़ाकू विमान तेजस के लिए इंजन बनाना था। लेकिन शुरूआत से ही ये प्रोजेक्ट टेक्नोलॉजिकल दिक्कतों से जूझता रहा। भारत के पास हाई टेम्परेचर अलॉय नहीं थे, ब्लेड में सिंगल क्रिस्टल टेक्नोलॉजी नहीं थी और टरबाइन का कूलिंग सिस्टम बार-बार फेल होता रहा। करीब 30 सालों की मेहनत करने और 2500 करोड़ रुपये के आसपास झोंकने के बाद भी कावेरी इंजन इतनी क्षमता हासिल नहीं कर पाया कि वो तेजस लड़ाकू विमान को उड़ा सके। स्टडी करने पर पता चलता है कि दिक्कत टेक्नोलॉजी को लेकर तो थी ही, साथ ही साथ फैसला रणनीतिक भी था। भारत ने मिसाइल टेक्नोलॉजी में भारी भरकम निवेश किए, क्योंकि वहां सॉफ्टवेयर-हेवी + मॉड्यूलर हार्डवेयर सिस्टम था। डिफेंस एक्सपर्ट सौरव झा ने NBT ऑनलाइन से बातचीत में कहा, ‘लड़ाकू विमानों का इंजन बनाना टेक्नोलॉजी की दुनिया में शीर्ष क्षमता का काम है। ये रॉकेट का इंजन बनाने से भी ज्यादा मुश्किल है। रॉकेट सिर्फ एक बार उड़ता है, लेकिन लड़ाकू विमानों की बात अलग होती है।’

fighter jet engine saurav jha

चीन की लड़ाकू विमान का इंजन बनाने की कहानी
अध्याय-1: लड़ाकू विमानों का इंजन बनाना ‘इंजन ऑफ जियो-पॉलिटिक्स’ का काम होता है। जिन देशों ने इंजन बना लिया है वो किसी भी हाल में टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं करना चाहते। चीन ने भी रूस से लेकर यूक्रेन, फ्रांस और यहां तक की अमेरिका के भी दरवाजे खटखटाए, लेकिन सीमित जानकारी मिली। लेकिन वो बेहिसाब पैसा बहाता रहा। करोड़ों डॉलर झोंकता रहा और अब जाकर उसने चौथी पीढ़ी के लड़ाकू विमानों का इंजन तैयार कर लिया है। हालांकि पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने में वो आज भी पूरी तरह से कामयाब नहीं हो पाया है। साल 1950-60 के दशक में चीन ने तत्कालीन सोवियत संघ से MIG-15 और MIG-17 खरीदे, जिसमें Klimov RD-45 इंजन लगा था। बाद में इन विमानों में रूस ने RD-9B इंजन लगाया। चीन ने झट से उसे कॉपी कर लिया और नाम रखा WP-5 और WP-6। लेकिन चीन के लिए अभी भी असली टर्बोफैन इंजन बनाना नामुमकिन सपने जैसा था।

अध्याय-2: फिर वर्ष 1980-90 के दशक में बदले जियो-पॉलिटिकल हालातों के बीच सोवियत संघ ने रहमदिली दिखाई और चीन ने अपना पहला मल्टीरोल फाइटर Chengdu J-10 शुरू किया। हालांकि उसके पास कोई भरोसेमंद इंजन नहीं था। अंत में उसे रूस से AL-31FN इंजन लेना पड़ा, जो कि रूसी फाइटर जेट Su-27 का इंजन था। लेकिन ये इंजन अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पा रहा था। इसकी विश्वसनीयता काफी कम थी और सोवियत संघ ने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं किया। जिसके बाद फिर से चीन ने रिवर्स इंजीनियरिंग करते हुए WS-10 नाम से इंजन बना लिया। लेकिन ये इंजन 15 सालों के बाद भी कामयाब नहीं हो पाया।

अध्याय-3: कॉपी करने और रिवर्स इंजीनियरिंग करने के बाद भी चीन स्वदेशी इंजन बनाने में हार गया। WS-10 इंजन में हाईटेम्परेचर के दौरान बार बार नाकाम होता रहा। लंबे उड़ान के दौरान ब्लेड फेल हो जाता था। थ्रस्ट जेनरेट करने में बार बार नाकाम हो जाता था। हालांकि फिर भी इस इंजन को चीन ने अपने कई विमानों में लगाया लेकिन AL-31FN जैसा परफॉर्मेंस नहीं मिल पाया। पीएलए एयरफोर्स के पायलट WS-10 इंजन पर भरोसा नहीं कर रहे थे।

अध्याय-4: चीन के लड़ाकू इंजन बनाने की कोशिश जारी रही, लेकिन इस बीच उसने पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान बनाने में कामयाबी हासिल कर ली। साल 2011 में पहली बार J-20 स्टील्थ फाइटर जेट ने भी उड़ान भर ली, लेकिन इसमें भी रूसी इंजन AL-31FN Series 3 लगा हुआ था। चीन ने हालांकि WS-15 इंजन तो बना लिया, लेकिन सबसे मुश्किल हिस्सा आफ्टरबर्नर बनाने में वो अभी भी नाकाम हो रहा था। हालांकि WS-15 को चीन ने काफी अपग्रेड किया है और अब उसका दावा है कि ये इंजन कामयाब हो गया है। लेकिन अभी भी J-20 के कई वैरिएंट रूसी AL-31FN इंजन से उड़ान भर रहे हैं।

fighter jet engine

भारत बनाम चीन… जेट इंजन बनाने के लिए संघर्ष
लड़ाकू विमानों का इंजन स्वदेशी होना कितना जरूरी है, चीन 2000 के दशक में ही इस बात को समझ चुका था। चीन की कामयाबी सिर्फ पैसों की नहीं थी, बल्कि वो अपनी नाकामी से भागा नहीं। WS-10 इंजन जब पहली बार J-11B (Su-27 की चीनी कॉपी) में लगा तो वो बार बार फेल हो रहा था। टरबाइन ओवरहीट, ब्लेड टूटना, इंजन स्टॉल जैसी समस्याएं आईं। लेकिन चीनी इंजीनियरों ने WS-10 को 10 साल में लगातार बेहतर किया और आज यह लड़ाकू विमानों में लगने लगा। अनुमानित तौर पर चीन ने लड़ाकू विमानों का इंजन बनाने में 25 से 30 अरब डॉलर खर्च किए। हालांकि ये आंकड़े सत्यापित नहीं हैं। इन आंकड़ों की सटीकता की पुष्टि करना मुश्किल है, क्योंकि चीन की तरफ से कभी भी आधिकारिक तौर पर आंकड़े नहीं जारी किए गये।

भारत में कावेरी इंजन फेल होने के बाद DRDO की GTRE संस्था अकेले ही इस प्रोजेक्ट पर लगी रही। प्राइवेट प्लेयर्स को इसमें शामिल नहीं किया गया और इंडस्ट्री बनाने की कोई कोशिश नहीं हुई। सुपरअलॉय फॉर्जिंग, टरबाइन कूलिंग और माइक्रो प्रिसिशन इंजीनियरिंग अभी भी एडवांस नहीं है। जबकि चीन ने 2000 से ज्यादा इंजीनियरों को सिर्फ टर्बाइन ब्लेड बनाने में ही ट्रेनिंग दी है। चीन ने सिर्फ रिवर्स इंजीनियरिंग ही नहीं की, बल्कि उसने जासूसी, साइबर चोरी तक को अंजाम दिया। साल 2019 में अमेरिका में FBI ने जेट इंजन का ब्लूप्रिंट भेजने के आरोप में एक चीनी इंजीनियर को गिरफ्तार किया था। इसके अलावा चीन ने यूक्रेन की Motor Sich कंपनी को खरीदने की कोशिश की ताकि पुराने सोवियत संघ की टेक्नोलॉजी का फायदा उठाया जा सके। यानि चीन ने चोरी भी की, सीख भी लिया और अब उसने अपना इको-सिस्टम भी तैयार कर लिया। यानि अब चीन पास WS-13 (JF-17), WS-10 (J-10/11/16) और WS-15 (J-20) जैसे इंजन हैं। WS-15 अभी भी कुछ कमियों से जूझ रहा है, लेकिन कम से कम वो फाइटर जेट में लगकर उड़ान तो भर रहा है। कावेरी इंजन प्रोजेक्ट भारत ने साल 1986 में शुरू किया था और इंजन बनाने का लक्ष्य 10 सालों में यानि साल 1996 में रखा गया था। ये गलत अनुमान लगाया गया था। जबकि फंड ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर दिए गये थे।

कावेरी प्रोजेक्ट 30 सालों तक चलता रहा, लेकिन चौथी पीढ़ी के लड़ाकू विमान के लिए जरूरी 80 किलो न्यूटन थ्रस्ट जेनरेट करने में नाकाम रहा। कावेरी मैक्सिमम 73KN थ्रस्ट ही जेनरेट कर पाया। यानि भारत ने इंजन डेवलपमेंट की जटिलता को अंडरएस्टीमेट कर लिया था। इसके अलावा हाई-थ्रस्ट इंजनों के लिए वर्ल्ड क्लास टेस्टिंग फैसिलिटी जरूरी होती है। लेकिन भारत में ऐसी सुविधाएं नहीं थीं, जिससे इंजन को अलग अलग वातावरण में टेस्ट किया जा सके। भारत में आज भी ऐसी फैसिलिटी नहीं है। भारत ने कावेरी इंजन को टेस्ट के लिए रूस भेजा हुआ है। इसके अलावा कावेरी के लिए कंपोनेंट्स खरीदने में भी चुनौतियां आईं। भारत के ऑर्डर छोटे होते थे और विदेशी देशों से काफी लेट डिलीवरी मिलती थी, जिससे बार बार ये प्रोजेक्ट टलता जा रहा था और लागत में इजाफा होता जा रहा था।

सौरव झा़, जियोस्ट्रैटजिस्ट

जेट इंजन बनाने के लिए भारत अब क्या कर रहा?
बदलते जियो-पॉलिटिकल हालातों ने स्वदेशी कार्यक्रमों की जरूरत को दुनिया के सामने ला दिया है। आज की तारीख में आप किसी भी देश पर निर्भर नहीं रह सकते हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत और फ्रांस के बीच लड़ाकू विमान का इंजन बनाने के लिए ज्वाइंट डेवलपमेंट एग्रीमेंट पर बातचीत चल रही है। जिसका लक्ष्य 110–120 kN थ्रस्ट वाला नया टर्बोफैन इंजन बनाना है, जिसे AMCA Mk2 में लगाया जा सके। ये एग्रीमेंट अगर फाइनल होता है तो इसका लक्ष्य सौ फीसदी भारत में ही इंजन बनाना है। इसके अलावा अमेरिकी कंपनी GE के साथ AMCA Mk1 इंजन का निर्माण करने की है। भारत और अमेरिका के बीच एक समझौता हुआ है जिसमें GE Aviation भारत में F414 इंजन का निर्माण HAL के साथ मिलकर करेगा। ये इंजन AMCA Mk1 और TEDBF (नौसेना के फाइटर प्रोजेक्ट) को शक्ति देगा। भारत को इसमें 60-80% तक टेक्नोलॉजी ट्रांसफर मिलने की संभावना है।

DRDO ने साल 2030 तक पहला स्वदेशी फाइटर जेट इंजन तैयार करने का लक्ष्य रखा है, जिसे जो AMCA Mk2, TEDBF और भविष्य के स्टील्थ विमानों में इस्तेमाल किया जा सके। लिहाजा कहानी का निष्कर्ष ये नहीं कि चीन बेहतर है या भारत कमजोर। बल्कि सीख यह है कि जेट इंजन जैसे क्षेत्र में निरंतरता, राजनीतिक इच्छाशक्ति, फंडिंग और नाकामी से सीखने की क्षमता ही असली हथियार है। मिसाइल बनाना युद्ध की रणनीति है, लेकिन इंजन बनाना औद्योगिक संप्रभुता का प्रतीक है। जिसे हासिल करने के लिए चीन ने सबकुछ दांव पर लगा दिया और अब वक्त की मांग है कि भारत को भी वही करना होगा।

अभिजात शेखर आजाद

लेखक के बारे में

अभिजात शेखर आजाद

अभिजात शेखर आजाद, बिहार के दरभंगा जिले के रहने वाले हैं। उन्होंने पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई की है और पिछले 15 सालों से ज्यादा वक्त से पत्रकारिता के क्षेत्र में हैं। ज़ी मीडिया समेत कई नामी संस्थानों काम कर चुके हैं। जियो-पॉलिटिक्स और डिफेंस सेक्टर में काम करने का लंबा अनुभव है। NBT में दुनिया डेस्क पर कार्यरत हैं और इंटरनेशनल पॉलिटिक्स और डिफेंस सेक्टर पर लिखते हैं।… और पढ़ें

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